मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
रिस्ते
धन्यवाद अमन, अरविंद भैया,नीरज भैया,दिनेश भैया, सचिन ,आलोक,हिमांशू,शिवांशू
,छोटू,काव्यांश,दीदी,भाभी, और अन्य सभी जिन्होंने मुझे 21 दिन तक मेरी लाइब्रैरी
वाली जिंदगी से दूर रखा,लेकिन इन दिनों में यह महसूस नहीं होने दिया कि मैं अपनी
किताबों से दूर हूं ,21वीं सदी के नाजुक से रिस्ते जो हल्की ठेस से बिखर जाते हैं,
क्योंकि आज सब अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में व्यस्त हैं, जब रिस्तों के सघन वृक्ष
को जल व प्रकाश रूपी समय नहीं मिल पाता तो वह कुम्हलाने लगता है और एक दिन सूख जाता
है.. पिछले एक दो सालों में मैं इतना कभी नहीं हंसा जितना इन दिनों में..या शायद
नियति ने अवसर ही न दिया हो,लोग कहते हैं रिस्ते बांधकर रखते हैं लेकिन मुझे नहीं
लगता रिस्ते बांधकर रखते हैं वे तो आगाज करते हैं खुलने का... कितने लोगों से मिलना
हुआ,परिचय हुआ नया, पुराना ,सब कितना रोमानी था, जब सब साथ में थे, मेरी बातों पर
ठहाके लगाते, लगता दुनिया सिमट के मुट्ठी में आ गयी हो.. ढोलक की लुढकती थापें कानो
को गुदगुदाती रहती, मानो दुनिया भर का संगीत नतमस्तक होकर इस संगीत के उतार चढाव को
महसूस कर रहा हो,ढोलक की थापें सोनें नहीं देती और शायद हम सोना चांहते भी नहीं
,घरों में भोर की चिड़ियों सी चहचहाहट... सारे स्वाद हैं रिस्तों में.. कोई
लाॅफ्टर, विदूषक या दुनिया भर के अन्य शोज़ रिस्तों की तुरपाई में लगने वाले एक
ठहाके के बराबर नहीं लगे मुझे.. चटपटे रिस्तों के मजाक जिन्हें हर कोई सुनना चाहें
,उनमें मिलती हार जीत दोनों ही विजय समान होती हैं,😘 पता नहीं कितना कुछ सीखा
मैंनै जो शायद अभी दुनिया की किताबें नहीं पा पायी हैं,मन कर रहा था कि यह दिसम्बर
अब यहीं रूका रहे.. बाकी फ़िर कभी जब आपके पास समय हो...या आप सुनना चाहें..
- निर्मल एहसास
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