मंगलवार, 25 जनवरी 2022

घेरे में..

अमानवीकरण के इस दौर में मानवता की बात करना ही शायद किसी को हास्यास्पद लगे खैर... समाज में परिवर्तन के साथ ही सत्य की परिभाषा भी परिवर्तित हुई है...न्याय-अन्याय के मानक बदले हैं। कोई घटना घृणित है या नहीं इस तथ्य का आकलन हमारी तात्कालिक राजनीतिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर होता है । हम किसी कृत्य या कुकृत्य का निर्धारण करने से पूर्व अपनी राजनीतिक या धार्मिक मान्यताओं को सबसे आगे रखते हैं और तटस्थता से न्याय नहीं कर पाते। अब अगर राष्ट्र में कुछ भी असंगत हुआ है तो यह खोजना कि किस तरह अपनी मान्यताओं से उसकी असम्बद्धता निर्धारित की जाये और दलदल में पत्थर इस तरह मारा जाये कि मुझे छोड़कर कीचड़ सामने वाले की कमीज पर जा गिरे... जब आप पहले से ही कुछ मानकर चलते हैं और उस घेरे से बाहर नहीं निकल पाते, क्योंकि आपका अहम् आप पर बहुत ज्यादा हावी है...और तब शुद्ध न्याय की उम्मीद ही व्यर्थ है... -निर्मल एहसास

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